‘चाँदमारा’ पता नहीं क्यों...इस शब्द से
मेरा बड़ा मोह हैं, पिछले कई महीने से अक्सर मुझे
इसकी गूँज अपने भीतर सुनाई देती है। मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि पहली बार मैंने इसे
कहाँ सुना था, सुना भी था कि नहीं ये भी ठीक
से याद नहीं। लेकिन कुछ तो है जिसकी वजह से इस शब्द का इतना आकर्षण है मेरे लिए।
मेरे ख्याल से ‘चाँदमारा’ का अर्थ पागल होता है और शायद यही मेरे इस शब्द से
प्रेम कि वजह भी है, क्योंकि मुझे पागलों से एक
विशेष लगाव है, उनकी सहजता मुझे आकर्षित करती है। अभी तक मौका नहीं
मिला है लेकिन उनको करीब से देखने और समझने की इच्छा सदा से मेरे अंदर रही है। कई
बार मैंने पागलखाने जा कर उन्हे देखने कि बात सोची है।
जीतना आत्मिक लगाव मुझे पागलों से है उतान ही शराबी और
प्रेमी से भी है, मुझे इन सब मे कुछ-कुछ एक जैसा
लगता है, इनकी मस्ती मुझे हमेशा से
आंदोलित करती रही है।
मैंने हमेशा से मस्ती को होश का पर्यायवाची माना है। “मेरी नज़र में वो रिंद ही नहीं साक़ी, जो मस्ती और होश मे इंतियाज़
करे…”
गूगल पे भी मैंने इसका अर्थ खोजा, चाँदमारा तो नहीं मिला लेकिन ‘चाँदमारी’ मिला जिसका अर्थ होता है बंदूक का निशाना लगाने का
अभ्यास। खोज के दौरान ही मुझे दिनेश कुमार शुक्ल जी की एक खूबसूरत कविता पढ़ने का
मौका मिला जिसमे उन्होने बड़ी खूबसूरती के साथ ‘चाँदमारी’ को अपनी कविता मे पिरोया है, उनकी कविता है, “आज दिन भर सूरज तकली पर धागो सी किरनें काता किया, हवा अपने तरकश के पुरवाये-पछुवाये तीर फेंकती रही, आदमी के सीने-सी एक दिवार ने खूब लोहा पिया खूब
सीसा पिया, आज यहाँ जम करके ‘चाँदमारी’”
‘चाँदमरा’ से मेरे प्रेम का एक और कारण है, वो है मेरे और चाँद के बीच की प्रीति (वैसे मैं आपको बता दूँ ‘प्रीति’ शब्द से भी मुझे बड़ी गहरी प्रीति है, इसकी चर्चा हम कभी बाद मे करेंगे),……..
चाँद से मेरा प्रेम बहुत पुराना है, आज भी मुझे याद है बचपन के वो दिन, जब, खुले आँगन मे खाट पे लेटा....अतरंगी गीत गाते हुए
घंटो जागा चाँद को निहारा करता था,….. सावन के दिनो मे
जब आकाश मे छिटपुट बादल होते थे, तो बादलो की ओट मे
छिपे चाँद को लूका-छिपी खेलते देख कर ऐसा लगता था जैसे चाँद हमारे साथ चल रह हो, जहाँ भी जाता ऐसा लगाता वो साथ चल रहा हैं। पूरे गाँव मे बाढ़ का पानी भरा होता था,....., हम सब भाई-बहन रात छत पर बैठ कर….कांपती लहरों पे हिंडोले लेते चाँद को कंकरो से
निशाना बनाते रहते थे,..... दिन मे खपरा इकठ्ठा करते थे, और रात जब घर के सब लोग सो जाते थे, तब हम लोग पानी की सतह पर खपरा उछाल कर पूरी बनाने
का खेल खेलते थे, एक दूसरे से पुछते थे, ‘कितनी पूरी चाहिए तुम्हें’।...(इस से जियादा
अब और याद नहीं कर सकता मैं बचपन को, मेरा रोने का मन
कर कर रहा है,....Let me cry….)….!
हज़ार-हज़ार तारों की बारात के बीच ये चमकता
दूल्हा मुझे बचपन से प्रीतिकर रहा है....!
अंत मे, अगर चाँदमारा का अर्थ पागल होता
है तो, " मैं चाँदमारा हूँ"
No comments:
Post a Comment